व्यक्तित्व के विकास में संगीत की भुमिका

व्यक्तित्व के विकास के लिए शारीरिक, मानसिक एवं सांस्कृतिक विकास जरूरी है। छात्रों को सांस्कृतिक विधाओं को आत्मसात करना चाहिए। गायन, वादन और नृत्य का समन्वय ही संगीत है। संगीत के बिना मानव जीवन अधूरा है। मानव सभ्यता की शुरुआत से ही संगीत है।माना जाता है कि संगीत का प्रारम्भ सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में हुआ हालांकि इस दावे के एकमात्र साक्ष्य हैं उस समय की एक नृत्य बाला की मुद्रा में कांस्य मूर्ति और नृत्य, नाटक और संगीत के देवता की पूजा का प्रचलन। सिंधु घाटी की सभ्यता के पतन के पश्चात् वैदिक संगीत की अवस्था का प्रारम्भ हुआ जिसमें संगीत की शैली में भजनों और मंत्रों के उच्चारण से ईश्वर की पूजा और अर्चना की जाती थी। इसके अतिरिक्त दो भारतीय महाकाव्यों - रामायण और महाभारत की रचना में संगीत का मुख्य प्रभाव रहा। भारत में सांस्कृतिक काल से लेकर आधुनिक युग तक आते-आते संगीत की शैली और पद्धति में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है। भारतीय संगीत के इतिहास के महान संगीतकारों जैसे कि स्वामी हरिदास, तानसेन, अमीर खुसरो आदि ने भारतीय संगीत की उन्नति में बहुत योगदान किया है जिसकी कीर्ति को पंडित रवि शंकर, भीमसेन गुरूराज जोशी, पंडित जसराज, प्रभा अत्रे, सुल्तान खान आदि जैसे संगीत प्रेमियों ने आज के युग में भी कायम रखा हुआ है।भारतीय संगीत का आदि रूप वेदों में मिलता है। वेद के काल के विषय में विद्वानों में बहुत मतभेद है, किंतु उसका काल ईसा से लगभग 2000 वर्ष पूर्व था - इसपर प्राय: सभी विद्वान् सहमत है। इसलिए भारतीय संगीत का इतिहास कम से कम ४००० वर्ष प्राचीन संसार भर में सबसे प्राचीन संगीत सामवेद में मिलता है। उस समय "स्वर" को "यम" कहते थे। साम का संगीत से इतना घनिष्ठ संबंध था कि साम को स्वर का पर्याय समझने लग गए थे।वैदिक काल में तीन स्वरों का गान 'सामिक' कहलाता था। "सामिक" शब्द से ही जान पड़ता है कि पहले "साम" तीन स्वरों से ही गाया जाता था। ये स्वर "ग रे स" थे। धीरे-धीरे गान चार, पाँच, छह और सात स्वरों के होने लगे। बहुत से लोग विभिन्न उत्सवों और कार्यक्रमों पर संगीत सुनना और गाना बहुत पसंद करते हैं। कुछ लोग हरेक समय संगीत सुनते हैं जैसे: ऑफिस में, घर में, रास्ते में आदि। यह जीवन की सभी समस्याओं से दूर रखने में मदद करता है और समस्याओं के समाधान भी देता है। आजकल, बड़ी कम्पनियों में ऑफिसों में कर्मचारियों के काम करने के समय पर उनके मस्तिष्क को तरोताजा, शान्तिपूर्ण, एकाग्र, सकारात्मक विचारों वाला बनाने के साथ ही कर्मचारियों की कार्य क्षमता को बढ़ाने के लिए धीमी आवाज में गाना चलाने का दौर चलन में संगीत बहुत ही शक्तिशाली है और सभी भावनात्मक समस्याओं के लिए सकारात्मक संदेश पहुँचाता है और किसी से भी कुछ भी नहीं पूछता। यह एक प्रकार का मधुर संगीत है। हालांकि हमें सब कुछ बताता है और मनुष्यों से ज्यादा समस्याओं को साझा करता है। संगीत की प्रकृति प्रोत्साहन और बढ़ावा देने की है, जो सभी नकारात्मक विचारों को हटाकर मनुष्य की एकाग्रता की शक्ति को बढ़ता है। संगीत वो वस्तु है जो हमारे सबसे प्रिय व्यक्ति के साथ की, सभी अच्छी यादों को पुनः याद करने में मदद करता है। इसकी कोई सीमा, बाधा और नियम निर्देशिका नहीं है; इसे तो केवल लगन और श्रद्धा के साथ सुनने की आवश्यकता है।

जब भी हम संगीत सुनते हैं, यह हृदय और मस्तिष्क में बहुत अच्छी भावना लाता है, जो हमें हमारी आत्मा से जोड़ती है। यहीं जुड़ाव भगवान की सर्व शक्ति होता है। संगीत के बारे में किसी ने सही कहा है कि;“संगीत की कोई सीमा नहीं है, यह तो सभी सीमाओं से परे है।” और “संगीत जीवन में और जीवन संगीत में निहित है।” इससे प्रभावित होकर, मैंने भी संगीत और गिटार बजाना सीखना शुरु कर दिया है और यही आशा है कि, एक दिन बहुत अच्छा संगीतज्ञ संगीत में काफी शक्ति होती है यह लोगों के मन में कई तरीके से जगह बनाता है। जहां ये काम को बना सकता है वह बिगाड़ भी सकता है। संगीत के सबके जीवन पर बहुत ही गहरा असर पड़ता है मनुष्य से लेकर पेड़-पौधे, जीव-जंतु आदि। वैज्ञानिक ने यह सिद्ध कर दिया है की संगीत के जरिये रोगों का उपचार भली-भांति किया जा सकता है। नेत्र रोग और ह्रदय रोग के उपचार में इसका प्रयोग बहुत सफल रहा है I संगीत के स्वरों से पाचन सम्बंधित बीमारियों का उपचार भी किया जाता है I जैसे-जैसे मनुष्य संगीत की स्वर लहरो में खोता चला जाता है, उसका ध्यान सब बातों से हट जाता है और वह सुकून महसूस करने लगता संगीत योग की तरह है। यह हमें खुश रखता है और हमारे शरीर में हार्मोनल संतुलन को भी बनाये रखता है। इसके साथ ही यह शरीर व मस्तिष्क को राहत देने का भी कार्य करता है। जिसके कारण यह शारीरिक और मानसिक रुप से हमारे शरीर को स्वस्थ बनाये रखने में हमारी सहायता करता है। यह हमें मोटापे तथा मानसिक समस्याओं से भी बचाने का कार्य करता है। मैं संगीत बहुत पसंद करता हूँ और हर सुबह संगीत सुनना मुझे काफी पसंद है। संगीत हमारे हृदय के लिए भी काफी महत्वपूर्ण है और यह एक अच्छी नींद प्राप्त करने में भी हमारी सहायता करता है।समाज-जीवन एवं लोक व्यवहार में गीत रचे-बसे हैं। गीत बेजान नहीं होते, उनमें समय का स्पन्दन होता है। वे किसी जीवन्त समाज के परिचायक हैं। गीत सबको पसन्द होते हैं। सुर,लय,ताल,आरोह-अवरोह और गीत बोलने की एक विशेष शैली हर व्यक्ति को अपनी ओर खींचती है। गीतों के माध्यम से किसी विषयवस्तु को सरलता से न केवल अभिव्यक्त किया जा सकता है बल्कि कहीं अधिक बोधगम्य भी बनाया जा सकता है। गीत वातावरण की नीरसता, एकरसता, ऊब और भारीपन को दूर कर सरसता, समरसता, उमंग और उत्साही परिवेश का निर्माण करते हैं। सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को गीत रोचक और ऊर्जावान बना देते हैं। गीत केवल शब्दों का कोरा समुच्चय भर नहीं हैं, इनमें माटी की महक है, लोक की गमक है और सामाजिक प्रवाह का कलरव भी। ये समकालीन संस्कृति की धड़कन हैं, समाज और राष्‍ट्र की अमूल्य धरोहर हैं। गीतों में अगर भौगोलिक सीमाएँ, नदी, तालाब, पर्वत, घाटी,जंगल, कोहरा, जाड़ा, गर्मी, वर्षा,पवन,फूल और पशु-पक्षी प्राणवान हो उठते हैं तो इतिहास भी अपने पात्रों, पुरा प्रस्तर औजारों, मुहरों-मुद्राओं,सन्धि पत्रों युद्धों और हार-जीत के साथ प्रत्यक्ष होने को लालायित हो उठता है। इतना ही नहीं फाग, होरी, चैती, बिरहा, सावनी,कजरी के साथ-साथ कहरई, कुम्हरई, धोबी, बैलही, दिवारी, उमाह आदि विभिन्न जाति समूहों के अपने-अपने गीत हैं, जिनमें उनकी जिजीविषा, पहचान, अस्मिता, गौरव बोध और सांस्कृतिक वैभव समाया है।

शिक्षण एवं प्रशिक्षण कार्यक्रमों में गीतों का महत्त्व निर्विवाद स्वीकार्य है। यह देखने में आया है कि विद्यालयों का गम्भीर और अरुचिकर वातावरण बच्चों को न केवल शिथिल एवं थका देता है बल्कि उन्हें निस्तेज भी करता है। प्रातः विद्यालय में प्रवेश करते हुए उत्साह-उल्लास से भरे पूरे हँसते-खिलखिलाते फूल-से सुकोमल चेहरे घर जाते समय मुरझाये और निर्जीव-से दिखाई पडते हैं। इन 6-7 घण्टों में बच्चे विद्यालय में घुटन और पीड़ा का संत्रास झेलने को विवश होते हैं। वे समय-सारिणी के अनुकूल जीने को मजबूर होते हैं। घण्टी बजती है, घण्टे बदलते हैं ,विषय बदलते हैं, शिक्षक बदलते हैं लेकिन नहीं बदलता तो वह बच्चों को मुँह चिढ़ाता डरावना बोझिल वातावरण और पारम्परिक शिक्षण का तरीका। परिणाम बच्चे निष्क्रिय रहते हैं और उनका सीखना बाधित होता है। बालमन के पारखी कुशल शिक्षक कक्षा शिक्षण के दौरान माहौल को रुचिपूर्ण एवं आनन्ददायी बनाने के लिए बीच-बीच में प्रेरक चेतना गीतों का प्रयोग करके न केवल बच्चों का मन जीत लेते हैं बल्कि प्रस्तुत विषयवस्तु को उनके लिए सहज ग्राह्य बना देते हैं। हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब एक दिन। यह एक गीत किस प्रकार बालमनों में आशा और विश्वास का संचार करता है, किसी से छिपा नहीं है। इसी प्रकार प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भी सत्रों के बीच-बीच में प्रशिक्षक द्वारा समूह गीतों का प्रयोग करके प्रशिक्षण को जीवंत और सक्रिय बनाया जा सकता है। एक अच्छा प्रशिक्षक सम्बंधित विषय की भूमिका के रूप में उसी भाव एवं विचारों से ओतप्रोत गीत का सामूहिक गायन कर न केवल वातावरण तैयार कर लेता है बल्कि प्रतिभागियों का ध्यान आकृष्ट करते हुए अपना प्रभाव भी जमा लेता है। यदि हम बच्चों की पढ़ाई, विद्यालय रखरखाव और अन्य क्रियाकलापों के सम्बन्ध में शिक्षकों, अभिभावकों या विद्यालय प्रबन्ध समिति की बैठक आयोजित करें तो संवाद से पूर्व गीत का सामूहिक गायन वैचारिक वातावरण का निर्माण कर देता है -


बच्चों की पढ़ाई पे विचार होना चाहिए। जिसकी जिम्मेदारी उससे बात होनी चाहिए


या


ले मशालें चल पड़े हैं अब लोग मेरे गाँव के। अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव शिक्षा का अधिकार अधिनियम और राष्‍ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में विद्यालयीय परिवेश एवं कक्षा-कक्षों का वातावरण प्रजातांत्रिक, बाल मैत्रीपूर्ण तथा दण्ड एवं भयमुक्त बनाने पर बल दिया गया है। अपने शिक्षकीय जीवन में मेरा यह अनुभव रहा है कि खेलकूद, गीत-कहानी और बाल आधारित अन्यान्य शैक्षिक गतिविधियों /क्रियाकलापों के प्रयोग से विषयवस्तु की प्रस्तुति सरल हो जाती है जिसको बच्चे अर्थ समझते हुए ग्रहण करते हैं, स्व अनुशासन के लिए प्रेरित होते हैं तथा कक्षा भी सक्रिय रहती है। बच्चों में आत्मविश्वास, मौलिक चिन्तन एवं कल्पना शक्ति का विकास होता है। शिक्षक भी प्रसन्न मन और उमंग से भरे रहते हैं। बच्चों के पढ़ना-लिखना सीख सकने में गीतों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। किसी गीत में पिरोये वर्णों और शब्दों से बच्चे खेलते हैं, जीते हैं और उनसे अपनेपन का एक रिश्ता जोड़ लेते हैं। अगर भाषायी कौशलों सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना के विकास की बात करें तो गीत सहायक सिद्ध होते हैं। पढ़ना बल्कि यह कहें कि सीखने की पूरी प्रक्रिया बच्चों के लिए नीरस, थकाऊ और कष्टदायी न होकर रोचक, सरस और आनन्ददायी हो जाती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम बच्चों के मन, उसकी इच्छा-आकांक्षा,सपनों, भावनाओं को समझें। हम यह जानने की कोशिश करें कि वह क्या चाहता है। हम उसको उस तरीके से पढाएँ जिस तरीके से वह पढ़ना चाहता है, न कि जिस तरीके से हम पढ़ाना चाहते हैं। एक बार इस अनुभव से गुजर कर तो देखिए। तो साथियो! आइए,अपने विद्यालय को आनन्दघर बनाते हैं

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